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बाराबंकी। पारंपरिक खेती के दायरे से बाहर निकलकर यहां के किसानों ने इस बार मेंथा की खेती के साथ खस की खेती करनी शुरू कर दी और यह सहफसली खेती इन किसानों के लिए फायदे का सौदा साबित हो रही है।

बाराबंकी जिला मुख्यालय से 38 किलोमीटर उत्तर दिशा में सूरतगंज ब्लॉक के अकमबा गाँव के किसान राम मनोरथ वर्मा (55 वर्ष) पिछले कई सालों से मेथा की खेती कर रहे थे पर पिछले साल से उन्होंने मात्र दो बीघा खेती में खस और मेंथा की सह फली खेती की थी, इन्हें इस सहफसली खेती से अच्छा मुनाफा हुआ इसलिए इस बार करीब पांच एकड़ खेती में यह खस और मेंथा की सहफसली खेती कर रहे हैं।


राम मनोरथ वर्मा बताते हैं, “फरवरी और मार्च के माह में खस रोपाई की जाती है और इसी समय हम अपने खेतों में मेथा की भी फसल रोपित कर देते हैं खस के पौधे की दूरी 18 बाई 10 सेमी. की दूरी पर होती हैं इसके बीच में जो जगह शेष बचती है उसमें मेथा की रोपाई हम कर देते हैं और समय-समय पर सिंचाई और खाद जो मेथा में हम डालते ही थे वह डालते रहते हैं।”

आगे बताते हैं कि जून के अंत तक मेथा की कटाई हो जाती है और खेत की गुड़ाई करके उसमें सिंचाई कर दी जाती है और इस दौरान खस की खेती के लिए हमें अतिरिक्त कुछ खाद पानी की जरूरत नहीं पड़ती है क्योंकि मेथा में तो समय समय पर पानी और खाद देना ही होता था जून के बाद बरसात शुरू हो जाती है और खेतों में पानी की जरूरत नहीं रह जाती है बरसात के पानी से ही खस की खेती को नमी मिलती रहती है।


वहीं खस और मेथा कि सहफसली खेती करने वाले दूसरे युवा किसान अजय वर्मा बताते हैं खस की फसल करीब 9 माह की होती है मार्च में लगाने के बाद दिसंबर तक खस की खुदाई कर ली जाती हैं इनकी जड़ों को हम तेल प्राप्त करते हैं जो बाजार में बड़े अच्छे भाव में बिकता है अगर देखा जाए तो इस वक्त करीब 25000 रुपए प्रति किलो के भाव में बिक रहा है और यह तेल का रेट और भी ज्यादा हो सकता है।

अजय आगे बताते हैं, “एक एकड़ खेत में खस का तेल करीब 10 से 12 किलो तक निकल सकता है जो तीन से साढ़े तीन लाख तक का हो जाता है।”

खस का तेल तैयार करने में खासी मेहनत लगती है करीब 60 से 70 घंटे तक इसकी पेराई लगातार की जाती है तब जाकर इसका तेल निकलता है इसके तनों को किसान छप्पर आदि छाने में इस्तेमाल करते हैं।


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By udaen

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